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धर्म  : पुं० [सं०√धृ+मन्] [वि० धार्मिक] १. पदार्थ का वह प्राकृतिक तथा मूलगुण, विशेषता या वृत्ति, जो उसमें बराबर स्थायी रूप से वर्तमान रहती हो, जिससे उसकी पहचान होती हो और उससे कभी अलग न की जा सकती हो। जैसे—आग का धर्म जलना और जलाना या जीव का धर्म जन्म लेना और मरना है। २. सामाजिक क्षेत्र में नियम, विधि, व्यवहार आदि के आधार पर नियत तथा निश्चित वे सब काम या बातें जिनका पालन समाज के अस्तित्व या स्थिति के लिए आवश्यक होता है और जो प्रायः सर्वत्र सार्विक रूप से मान्य होती है। जैसे—अहिंसा, दया, न्याय, सत्यता आदि का आचरण मनुष्य मात्र का धर्म है। ३. लौकिक क्षेत्र में वे सब कर्म तथा कृत्य, जिनका आचरण या पालन किसी विशिष्ट स्थिति के लिए विहित हो। जैसे—(क) माता-पिता की सेवा करना पुत्र का धर्म है। (ख) पढ़ना-पढ़ाना यज्ञ आदि करना, किसी समय ब्राह्मण का मुख्य धर्म माना जाता है। ४. आध्यात्मिक क्षेत्र में, ईश्वर, देवी-देवता, देव-दूत (पैगम्बर) आदि के प्रति मन में होने वाले विश्वास तथा श्रद्धा के आधार पर स्थित वे कर्तव्य कर्म अथवा धारणाएँ, जो भिन्न-भिन्न जातियों और देशों के लोगों में अलग-अलग रूपों में प्रचलित हैं और जो कुछ विशिष्ट प्रकार के आचार-शास्त्र तथा दर्शन-शास्त्र पर आश्रित होती हैं। जैसे—ईसाई-धर्म, बौद्ध-धर्म, हिंदू-धर्म आदि। विशेष—साधारणतः ऐसे धर्म या तो किसी विशिष्ट महापुरुष द्वारा प्रवर्तित और संस्थापित होते हैं, या किसी मुख्य और परम मान्य ग्रंथ पर आश्रित होते हैं, जिसे धर्मग्रन्थ कहते हैं। ऐसे ग्रन्थों में उल्लिखित बातों का पालन, पारलौकिक सुख या स्वर्ग की प्राप्ति के उद्देश्य से उस धर्म के अनुयायियों के लिए आवश्यक या कर्तव्य समझा जाता है। पद—धर्म-कर्म, धर्म-ग्रंथ, धर्म-चर्चा आदि। मुहा०—धर्म कमाना=धर्म करके उसका फल संचित करना। धर्म-खाना=धर्म का साक्षी बनाकर या धर्म की शपथ करते हुए कोई बात कहना। धर्म रखना=धर्म के अनुसार आचरण या व्यवहार करना। धर्म लगती या धर्म से कहना =धर्म का ध्यान रखकर उचित और न्याय संगत बात कहना। उचित, ठीक या सच बात कहना। ५. भारतीय नागर नीति में, वे सब नैतिक या व्यवहारिक नियम और विधान, जो समाज का ठीक तरह से संचालन करने के लिए प्राचीन ऋषि-मुनि समय-समय पर बनाते चले आये हैं और जो स्वर्गादि शुभ फल देने वाले कहे गये हैं। जैसे—धर्म-शास्त्र क्षेत्र में उक्त प्रकार के तथ्यों या बातों से मिलती-जुलती वे सब धारणाएँ विचार और विश्वास, जिनका आचरण तथा पालन कुछ लोग अपने लिए आवश्यक और कर्तव्य समझते हैं। जैसे—मानवता (या राष्ट्रीयता) के सिद्धान्तों का पालन करना ही हमारा धर्म है। ७. सदाचार। ८. पुण्य। सत्कर्म। ९.अलंकार शास्त्र में वह गुण या वृत्ति, जो उपमेय और उपमान दोनों के समान रूप से वर्तमान रहती है और जिसके आधार पर एक वस्तु की उपमा दूसरी वस्तु से दी जाती है। १0. न्यायशीलता और विवेक-बुद्धि। मुहा०—धर्म में आना=मन में उचित या ठीक जान पड़ना। जैसे—जो तुम्हारे धर्म में आवे, सो करो। १ १. धर्मराज। यमराज। १ २. कमान। धनुष। १ ३. सोमपान करनेवाला व्यक्ति। १ ४. वर्तमान अवसर्पिणी के १ ५ वें अर्हत का नाम। (जैन) वि० संबंध सूचक शब्दों के आरम्भ में, धर्म के अनुसार या धर्म को साक्षी करके बनाया या माना हुआ। जैसे—धर्म-पत्नी, धर्म-पिता।
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धर्म-कर्म  : पुं० [ष० त०] १. वे कार्य जो धर्म-ग्रन्थों में मनुष्य मात्र के लिए कर्तव्य कहे गये हों। २. किसी विशिष्ट धर्म के अनुसार किये जाने वाले लौकिक कृत्य।
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धर्म-काम  : पुं० [सं० धर्म√कम् (चाहना)+णिङ+अण्] अपना कर्तव्य समझकर धार्मिक कृत्य करनेवाला व्यक्ति।
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धर्म-काय  : पुं० [च० त०] बौद्ध-दर्शन में बुद्ध का वह परमार्थ-भूत शरीर जो अनिवर्चनीय, अनंत, अपरिमेय और सर्वव्यापक माना गया है।
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धर्म-कोल  : पुं० [ष० त०] १. राज्य का शासन। २. शासन करनेवाली सत्ता।
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धर्म-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] १. कुरुक्षेत्र। २. भारतवर्ष, जो भारतीय आर्यों की दृष्टि में धर्म-कार्य करने के लिए विशेष रूप से उपयुक्त माना गया है।
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धर्म-खाता  : पुं० [सं० धर्म+हिं० खाता] कार्य के विभाग या व्यय का वह मद जो केवल दान, परोपकार आदि का कामों में लगाने के लिए हो।
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धर्म-गंडिका  : स्त्री० [सं०] यज्ञ आदि में वह खूँटा, जिस पर बलि चढ़ाये जाने वाले जानवरों का सिर रखा जाता था।
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धर्म-गुरु  : पुं० [ष० त०] १. धार्मिक उपदेश या गुरुमंत्र देनेवाला गुरु। २. किसी धर्म या सम्प्रदाय का प्रधान आचार्य। जैसे—कबीर, नानक, शंकराचार्य आदि।
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धर्म-ग्रंथ  : पुं० [ष० त०] किसी जाति या संप्रदाय का उसकी दृष्टि में पूज्य ग्रंथ, जिसमें मनुष्य के धार्मिक व्यवहारों, पूजन-विधियों तथा सामाजिक संबंधों का निर्देशन होता है।
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धर्म-घट  : पुं० [च० त०] १. दान के रूप में दिया जाने वाला सुगंधित जल से भरा हुआ घड़ा। २. बस्तियों में घर-घर रखा जानेवाला वह घड़ा, जिसमें दान कार्य के लिए नित्य थोड़ा अनाज डालकर इकट्ठा किया जाता है।
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धर्म-घड़ी  : स्त्री० [सं० कर्म+हिं० घड़ी] वह बड़ी घड़ी, जो ऐसे स्थान पर लगी हो, जहाँ उसे सब लोग देख सकें।
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धर्म-चक्र  : पुं० [ष० त०] १. धर्म का सारा क्षेत्र और उसके सब आचरण तथा व्यवहार। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र। ३. धर्मशिक्षा रूपी वह चक्र या पहिया, जो गौतम बुद्ध ने काशी में सबको धर्म की शिक्षा देने के लिए चलाया था। ४. गौतम बुद्ध, जो उक्त चक्र चलानेवाले थे।
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धर्म-चर्या  : स्त्री० [ष० त०] धार्मिक ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्तों के अनुसार किये जाने वाले सब आचरण और व्यवहार।
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धर्म-चिंतन  : पुं० [ष० त०] धर्म-संबंधी बातों पर किया जानेवाला चिंतन, मनन या विचार।
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धर्म-च्युत  : वि० [पं० त०] [भाव० धर्मच्युति] अपने धर्म से गिरा या हटा हुआ। जिसने अपना धर्म छोड़ दिया हो।
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धर्म-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] युधिष्ठिर का एक नाम।
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धर्म-तंत्र  : पुं० [ष० त०] ऐसी शासन प्रणाली, जिसमें किसी विशिष्ट धर्म या मजहब का ही प्रभुत्व होता है और शासन व्यवस्था प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से धर्म-पुरोहितों के हाथ में रहती है। (थियोक्रेसी)
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धर्म-दान  : पुं० [मध्य० स०] बिना किसी प्रकार की फल-प्राप्ति के निहित उद्देश्य से और केवल परोपकार की दृष्टि से दिया जानेवाला दान।
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धर्म-दारा  : स्त्री० [मध्य० स०] धर्मपत्नी। ब्याहता स्त्री।
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धर्म-देशक  : पुं० [ष० त०] धर्मोपदेशक।
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धर्म-धक्का  : पुं० [सं०+हिं०] १. ऐसा कष्ट जो धर्मानुसार कोई कार्य संपादित करते समय अथवा उसके फलस्वरूप सहना या उठाना पड़े। २. अच्छा काम करने पर भी मिलने वाली आपत्ति या बुराई।
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धर्म-धातु  : पुं० [सं० धर्म√धा (धारण)+तुन्] गौतमबुद्ध।
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धर्म-ध्वज  : पुं० [ब० स०] १. ऐसा व्यक्ति जो धर्म की आड़ लेकर स्वार्थ-साधन तथा अनेक प्रकार का कुकर्म करता हो। २. मिथिला के एक ब्रह्मज्ञानी राजा जो राजा जनक के वंशजों में से थे।
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धर्म-ध्वजता  : स्त्री० [सं० धर्मध्वज+तल्—टाप्] १. धर्म-ध्वज होने की अवस्था या भाव। २. धर्म की आड़ में किया हुआ आडम्बर।
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धर्म-ध्वजी  : पुं०=धर्मध्वज।
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धर्म-नंदन  : पुं० [ष० त०] युधिष्ठिर।
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धर्म-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. न्यायकर्ता। २. जैनों के पन्द्रहवें तीर्थंकर।
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धर्म-नाभ  : पुं० [धर्म-नाभि ब० स०, अच्] १. विष्णु २. एक प्राचीन नदी।
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धर्म-निरपेक्ष  : वि० [पं० त०] (राज्य अथवा शासन-प्रणाली) जहाँ अथवा जिसमें किसी धार्मिक सम्प्रदाय का पक्षपात या प्रभुत्व न हो। (सेक्युलर)
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धर्म-निष्ठ  : वि० [ब० स०] [भाव० धर्मनिष्ठा] जिसकी अपने धर्म में निष्ठा हो।
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धर्म-निष्ठा  : [स० त०] अपने धर्म के प्रति होने वाली निष्ठा या दृढ़ विश्वास।
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धर्म-पति  : पुं० [ष० त०] १. धर्म पर अधिकार रखनेवाला पुरुष। धर्मात्मा। २. वरुण देवता।
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धर्म-पत्तन  : पुं० [सं०] १. बृहत्संहिता के अनुसार कूर्मविभाग में दक्षिण का एक जन-स्थान जो कदाचित् आधुनिक धर्मापटम (जिला मलाबार) के आस-पास रहा हो। २. श्रावस्ती नगरी। ३. काली या गोल मिर्च।
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धर्म-पत्नी  : स्त्री०[च० त०] संबंध के विचार से वह स्त्री, जिसके साथ धर्मशास्त्र द्वारा निर्दिष्ट रीति से विवाह हुआ हो।
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धर्म-पत्र  : पुं० [ब० स०] गूलर।
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धर्म-परायण  : वि० [धर्म-पर-अयन, ब० स०] [भाव० धर्म-परायणता] धर्म द्वारा निर्दिष्ट ढंग से काम करने वाला। धर्म के विधानों के अनुसार निष्ठापूर्वक काम करनेवाला। (रेलिजस)
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धर्म-परिणाम  : पुं० [ष० त०] १. योग-दर्शन के अनुसार सब भूतों और इंद्रियों के एक रूप या स्थिति से दूसरे रूप या स्थिति में प्राप्त होने की वृत्ति। एक धर्म की निवृत्ति होने पर दूसरे धर्म की प्राप्ति। २. धर्म।
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धर्म-परिषद  : स्त्री० [ष० त०] न्याय करने वाली सभा। धर्मसभा।
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धर्म-पाठक  : पुं० [ष०] धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन करने वाला व्यक्ति।
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धर्म-पिता (तृ)  : पुं० [तृ० त०] वह जो धार्मिक भाव से किसी का पिता या संरक्षक बन गया हो। (जन्मदाता पिता से भिन्न)।
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धर्म-पीठ  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान, जो धार्मिक दृष्टि से प्रधान या मुख्य माना जाता हो। २. वह स्थान, जहाँ से लोगों को धर्म की व्यवस्था मिलती हो। ३. काशी नगरी का एक नाम।
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धर्म-पीड़ा  : स्त्री० [ष० त०] १. धर्म या न्याय का उल्लंघन। २. अपराध।
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धर्म-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. धर्म के पुत्र युधिष्ठिर। २. नर-नारायण। ३. वह जो अपना औरस पुत्र तो न हो, परंतु धार्मिक रीति या विधि से अथवा धर्म को साक्षी रखकर अपना पुत्र बना लिया गया हो।
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धर्म-पुरी  : स्त्री० [ष० त०] १. धर्म राज या यमराज की यमपुरी, जहाँ शरीर छूटने पर प्राणियों के किये हुए धर्म और अधर्म का विचार होता है। २. कचहरी। न्यायालय।
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धर्म-पुस्तक  : स्त्री०[ष० त०]=धर्म-ग्रन्थ।
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धर्म-प्रतिरूपक  : पुं० [ष० त०] मनु के अनुसार ऐसा दान, जो अपने सगे संबंधियों के दीन-दुखी रहते हुए भी केवल नाम या यश कमाने के लिए दूसरों को दिया जाए। (ऐसा दान निन्दनीय और धर्म की विडम्बना करनेवाला कहा गया है।)
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धर्म-प्रभास  : पुं० [सं०] गौतम बुद्ध।
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धर्म-प्रवचन  : पुं० [धर्म-प्र√वच् (बोलना)+ल्युट्—अन] १. कर्तव्य-शास्त्र २. बुद्धदेव।
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धर्म-बुद्धि  : स्त्री० [स० त०] धर्म-अधर्म का विवेक। भले-बुरे का विचार।
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धर्म-भगिनी  : स्त्री० [मध्य० स०] १. वह स्त्री जो धर्म को साक्षी करके बहन बनायी जाए। २. गुरु-कन्या।
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धर्म-भागिनी  : स्त्री० [स० त०]=धर्मपत्नी।
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धर्म-भाणक  : पुं० [ष० त०] धर्म का बखान करनेवाला व्यक्ति। कथा-वाचक।
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धर्म-भिक्षुक  : पुं० [च० स०] मनु के अनुसार नौ प्रकार के भिक्षुकों में से वह जो केवल धार्मिक कार्यों के लिए भिक्षा माँगता हो।
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धर्म-भीरु  : वि० [स० त०] [भाव०] धर्म भीहता (व्यक्ति) जो धर्म के भय के कारण अधर्म या दूषित काम न करता हो।
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धर्म-भ्रष्ट  : वि० [पं० त०] [भाव० धर्म भ्रष्टता] जो अपने धर्म से गिरकर भ्रष्ट हो गया हो। धर्म-च्युत।
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धर्म-मत  : पुं० [मयू० स०] धर्म के रूप में प्रचलित मत या संप्रदाय। मजहब (धर्म के व्यापक अर्थ और रूप से भिन्न)।
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धर्म-मति  : स्त्री०=धर्म-बुद्धि।
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धर्म-मूल  : पुं० [प० त०] धर्म का मूल, वेद।
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धर्म-यज्ञ  : पुं० [तृ० त०] ऐसा यज्ञ जिसमें पशुओं की बलि न दी जाती हो।
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धर्म-युग  : पुं० [मध्य० स०] सत्ययुग।
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धर्म-युद्ध  : पुं० [तृ० त०] १. ऐसा युद्ध जिसमें छल-कपट या धोखा-धड़ी न हो, बल्कि नैतिक दृष्टि से उच्च स्तर पर हो और किसी की दुर्बलता का अनुचित रूप से लाभ न उठाया जाए। २. धर्म की रक्षा के लिए अथवा किसी बहुत अच्छे उद्देश्य से किया जाने वाला युद्ध।
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धर्म-योनि  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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धर्म-लिपि  : स्त्री० [ष० त०] १. वह लिपि जिसमें किसी धर्म की मुख्य पुस्तक लिखी हो। २. भिन्न-भिन्न स्थानों पर खुदे हुए सम्राट अशोक के धार्मिक प्रज्ञापन।
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धर्म-लुप्ता उपमा  : स्त्री० [धर्म-लुप्ता तृ० त०, धर्म-लुप्ता और उपमा व्यस्त पद] उपमा अलंकार का एक भेद, जिसमें धर्म अर्थात उपमान और उपमेय में समान रूप से पाई जानेवाली बात का कथन या उल्लेख नहीं होता।
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धर्म-वर्धन  : पुं० [ष० त०] शिव।
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धर्म-वासर  : पुं० [ष० त०] पूर्णिमा तिथि।
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धर्म-वाहन  : पुं० [ष० त०] १. धर्म के संबंध में किया जानेवाला चिंतन या विचार। २. धर्मराज का वाहन, भैंसा।
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धर्म-विवाह  : पुं० [तृ० त०] धार्मिक संस्कारों से किया हुआ विवाह।
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धर्म-विवेचन  : पुं० [ष० त०] १. धर्म के संबंध में किया जाने वाला चिंतन या विचार। २. धर्म और अधर्म का विचार। ३. इस बात का विचार कि अमुक काम अच्छा है या बुरा।
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धर्म-वृद्ध  : वि० [तृ० त०] जो निरंतर धर्माचरण करने के कारण श्रेष्ठ माना जाता हो।
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धर्म-वैतंसिक  : पुं० [स० त०] वह जो पाप के द्वारा धन कमाकर लोगों को दिखाने और धार्मिक बनने के लिए बहुत दान-पुण्य करता हो।
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धर्म-व्याध  : पुं० [मध्य० स०] मिथिला का निवासी एक प्रसिद्ध व्याध जिसने कौशिक नामक वेदाध्यायी ब्राह्मण को धर्म का तत्त्व समझाया था।
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धर्म-शाला  : पुं० [च० त०] १. वह स्थान जहाँ धर्म और अधर्म का निर्णय होता हो। न्यायलय। विचारालय। २. वह स्थान, जहाँ नियमपूर्वक धर्मार्थ के विचार से दीन-दुखियों को दान दिया जाता हो। ३. परोपकार की दृष्टि से बनवाया हुआ वह भवन जिसमें हिंदू यात्री किसी प्रकार शुल्क दिये कुछ समय तक ठहर या रह सकते हों।
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धर्म-शास्त्री (स्त्रिन)  : पुं० [सं० धर्मशास्त्र+इनि] वह जो धर्मशास्त्र के अनुसार व्यवस्था देता हो।
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धर्म-शील  : वि० [ब० स०] [भाव० धर्मशीलता] जिसकी प्रवृत्ति धर्म में हो। धार्मिक।
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धर्म-संकट  : पुं० [ष० त०] असमंजस या दुबधा की ऐसी स्थिति जिसमें धर्म का अनुसरण करनेवाला व्यक्ति यह समझता है कि दोनों में से किसी पक्ष में जाने पर धर्म का कुछ न कुछ उल्लंघन करना पड़ेगा। उभय-संकट। (डिप्लोमा)
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धर्म-संगीति  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘संगायन’।
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धर्म-सभा  : स्त्री० [ष० त०] १. वह सभा या संस्था जिसमें केवल धार्मिक बातों या विषयों का विचार और विवेचन होता हो। (सिनॉड) २. कचहरी। न्यायालय। ३. दे० ‘संगायन’।
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धर्म-सावर्णि  : पुं० [मय० स०] पुराणों के अनुसार ग्यारहवें मन।
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धर्म-सुत  : पुं० [ष० त०] युधिष्ठिर।
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धर्म-सूत्र  : पुं० [ष० त०] जैमिनि प्रणीत धर्मनिर्णय-संबंधी एक ग्रन्थ।
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धर्म-सेतु  : वि० [ष० त०] सेतु की तरह धर्म को धारण करने, अर्थात धर्म का पालन करनेवाला।
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धर्म-स्थ  : वि० [सं०धर्म√स्था (ठहरना)+क] धर्म में स्थित। पुं० धर्माध्यक्ष। न्यायाधीश
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धर्मकेतु  : [ब० स०] १. कश्यप वंशीय सुकेतु राजा के पुत्र का नाम। २. गौतम बुद्ध।
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धर्मगुप्  : पुं० [सं० धर्म√गुप् (रक्षा)+क्विप्] विष्णु।
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धर्मचारी (रिन्)  : वि० [सं० धर्म√चर् (गति)+णिनि] धार्मिक नियमों तथा सिद्धांतों के अनुसार आचरण करनेवाला।
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धर्मज  : वि० [सं० धर्म√जन् (उत्पत्ति)+ड] धर्म से उत्पन्न। पुं० १. किसी का वह औरस पुत्र जो उसकी धर्म-पत्नी से पहले-पहल उत्पन्न हुआ हो। २. धर्मराज युधिष्ठिर, जो धर्म के पुत्र माने गये हैं। ३. एक बुद्ध का नाम। ४. नर-नारायण।
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धर्मजीवन  : पुं० [सं० ब० स०] धार्मिक कृत्य कराकर जीविका उपार्जित करनेवाला ब्राह्मण।
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धर्मज्ञ  : वि० [सं० धर्म√ज्ञा (जानना)+क] १. धर्म-संबंधी नियमों तथा सिद्धांतों का ज्ञाता। २. धर्मात्मा।
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धर्मण  : पुं० [सं० धर्म√नम् (झुकना)+ड] १. धामिन वृक्ष। २. धामिन साँप। ३. धामिन पक्षी।
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धर्मणा  : क्रि० वि०=धर्मतः।
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धर्मतः (तस्)  : अव्य० [सं० धर्म+तस्] १. धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार। २. धर्म की दुहाई देते हुए। ३. धर्म के आधार पर।
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धर्मद  : वि० [सं० धर्म√दा (देना)+क] अपने धर्म का पुण्य या फल दूसरों को दे देनेवाला।
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धर्मद्रवी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] गंगा नदी।
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धर्मनंदी (दिन्)  : पुं० [सं०] अनेक बौद्धशास्त्रों का चीनी भाषा में अनुवाद करने वाला एक बौद्ध पंडित।
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धर्मपट्ट  : पुं० [ष० त०] शासन अथवा धर्माधिकारी की ओर से किसी को भेजा हुआ पत्र।
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धर्मपरायणता  : पुं० [सं० धर्मपरायण+तल्—टाप्] धर्म-परायण होने की अवस्था या भाव। (रेलिजसनेस)
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धर्मपाल  : वि० [सं० धर्म√पाल् (पालन)+णिच्+अण] धर्म का पालन या रक्षा करनेवाला। पुं० १. वह जो धर्म का पालन करता हो। २. दंड या सजा जिसके आधार पर धर्म का पालन किया या कराया जाता है। ३. राजा दशरथ के एक मंत्री।
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धर्मभृत्  : पुं० [सं० धर्म√भृ (धारण)+क्विप्] १. राजा। २. धर्म-परायण व्यक्ति।
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धर्ममेघ  : पुं० [सं० धर्म√मिह (बरसना)+अच्, घ आदेश] योग में वह स्थिति, जिसमें वैराग्य के अभ्यास से चित्त सब वृत्तियों से रहित हो जाता है।
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धर्मराई  : पुं०=धर्मराज।a
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धर्मराज  : पुं० [धर्म√राज् (शोभित होना)+अच्] १. धर्म का पालन करने वाला, राजा। २. युधिष्ठिर। ३. यमराज। ४. जैनों के जिन देव। ५. न्यायाधीश।
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धर्मराज परीक्षा  : स्त्री० [ष० त०] स्मृतियों के अनुसार एक प्रकार की दिव्य परीक्षा, जिसमें यह जाना जाता था कि धर्म की दृष्टि में अभियुक्त दोषी है या निर्दोष।
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धर्मराय  : पुं०=धर्मराज।a
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धर्मवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० धर्म√वृत्त् (बरतना)+णिनि] धर्म के अनुकूल आचरण करनेवाला।
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धर्मवान (वत)  : वि० [सं० धर्म+मतुप्] धर्मात्मा। धर्मनिष्ठ।
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धर्मविजयी (यिन्)  : पुं० [तृ० त०] वह जो नम्रता या विनय से ही संतुष्ट हो जाय।
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धर्मवीर  : पुं० [स० त०] वह जो धर्म करने में सदा तत्पर रहता हो।
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धर्मव्रता  : स्त्री० [सं०] विश्वरूपा के गर्भ से उत्पन्न धर्म नामक राजा की कन्या, जिसने पातिव्रत्य की प्राप्ति के लिए घोर तप किया था; और मारीच ने जिसे परम पतिव्रता देखकर अपनी पत्नी बनाया था।
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धर्मशास्त्र  : पुं० [ष० त०] प्राचीन भारतीय समाज तथा हिंदुओं में, पारस्परिक व्यवहार से संबंध रखने वाले वे सब नियम या विधान, जो समाज का नियंत्रण तथा संचालन करने के लिए बड़े-बड़े आचार्य तथा महापुरुष बनाते थे और जो लोक में धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण और मान्य समझे जाते थे। जैसे—मानव धर्म-शास्त्र।
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धर्मसारी  : स्त्री०=धर्मशाला।a
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धर्मसू  : वि० [सं० धर्म√सू (प्रेरणा)+क्विप्] धर्म की प्रेरणा करनेवाला। पुं० एक पक्षी।
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धर्मसेन  : पुं० [सं०] १. एक प्रचीन महास्थविर या बौद्ध महात्मा, जो ऋषिपत्तन (सारनाथ, काशी) संघ के प्रधान थे। २. जैनों के बारह अंगविदों में से एक।
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धर्मस्कंध  : पुं० [सं०] धर्मास्तिकाय पदार्थ। (जैन)
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धर्मस्थीय  : पुं० [सं०] न्यायालय।
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धर्मस्व  : वि० [च० त०] धर्मार्थ कामों में लगाया या समर्पित किया हुआ (धन आदि) पुण्यार्थ। पुं० ऐसा समाज या संस्था, जिसकी स्थापना धार्मिक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए हुई हो।
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धर्मांग  : पुं० [धर्म-अंग, ब० स०] बगला (शरीर के सफेद रंग के आधार पर)।
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धर्मागम  : पुं० [धर्म-आगम, ष० त०] धर्मग्रन्थ।
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धर्माचरण  : पुं० [धर्म-आचरण, ष० त०] [कर्ता धर्माचारी] किया जाने वाला पवित्र और शुद्ध आचरण।
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धर्माचार्य  : पुं० [धर्म-आचार्य, स० त०] १. धर्मपुत्र। २. धर्मराज। युधिष्ठिर।
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धर्मांतर  : पुं० [धर्म-अंतर, मयू० स०] स्वकीय या प्रस्तुत धर्म से भिन्न कोई और धर्म।
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धर्मांतरण  : पुं० [सं० धर्मांतर+क्विप्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० धर्मांत-रित] अपना धर्म छोड़कर दूसरा धर्म ग्रहण करना।
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धर्मात्मा (त्मन्)  : वि० [धर्म-आत्मन्, ष० त०] १. धर्म-ग्रन्थों द्वारा प्रति-पादित सिद्धांतों के अनुसार आचरण करनेवाला। २. बहुत ही नेक और भला (व्यक्ति)।
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धर्मादा  : पुं० [सं० धर्म-दाय] धर्मार्थ निकाला हुआ धन।
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धर्मांध  : वि० [धर्म-अंध तृ० त०] १. (व्यक्ति) जो अपने धर्मशास्त्रों में बतलाई हुई बातों के अतिरिक्त दूसरी अथवा दूसरे धर्मों की आच्छी बातें भी मानने को तैयार न होता हो। २. स्वधर्म में अंध-श्रद्धा होने के फलस्वरूप दूसरे धर्मों के प्रति तिरस्कार या द्वेष की भावना रखनेवाला। ३. धर्म के नाम पर दूसरों से लड़ने अथवा अनुचित काम करने को तैयार होने वाला।
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धर्माधर्म  : पुं० [धर्म-अधर्म, द्व० स०] १. धर्म और अधर्म। २. धर्म और अधर्म का ज्ञान या विचार।
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धर्माधिकरण  : पुं० [धर्म-अधिकरण, ष० त०] वह स्थान, जहाँ राजा व्यवहारों (मुकदमों) पर विचार करता है। विचारालय।
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धर्माधिकरणी (णिन्)  : पुं० [सं० धर्माधिकरण+इन] न्यायाधीश।
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धर्माधिकरिणक  : पुं० [सं० धर्माधिकरण+ठन्—इक] धर्म-अधर्म का निर्णय करने वाला राज-कर्मचारी। न्यायाधीश।
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धर्माधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० धर्म-अधि√कृ (करना)+ णिनि] १. धर्म और अधर्म की व्यवस्था देने वाला, विचारक। न्यायाधीश। २. भारतीय देशी रियासतों और बड़े-बड़े धनवानों के यहाँ का वह अधिकारी जो निश्चय करता था कि किस धर्म में कितना धन व्यय किया जाए।
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धर्माधिकृत  : पुं० [धर्म-अधिकृत, स० त०]=धर्माध्यक्ष।
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धर्माधिष्ठान  : पुं० [धर्म-अधिष्ठान, ष० त०] न्यायालय।
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धर्माध्यक्ष  : पुं० [धर्म-अध्यक्ष, स० त०] १. धर्माधिकारी। २. विष्णु। ३. शिव।
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धर्मानुष्ठान  : पुं० [धर्म-अनुष्ठान, ष० त०]=धर्माचरण।
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धर्मापेत  : वि० [धर्म-अपेत] जो धर्म के अनुकूल न हो। अधार्मिक। अन्याय संगत। पुं० १. अधर्म। २. अन्याय। ३. पाप।
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धर्माभास  : पुं० [सं० धर्म+आ√भास् (दीप्ति)+अच्] ऐसा असद् धर्म जो नाम-मात्र के लिए धर्म कहलाता हो, पर वस्तुतः श्रुति-स्मृतियों की शिक्षाओं के विपरीत हो।
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धर्मारण्य  : पुं० [धर्म-अरण्य, मध्य० स०] १. तपोवन। २. पुराणानुसार एक प्राचीन वन, जिसमें धर्म उस समय लज्जा के मारे छिपा था, जब चन्द्रमा ने गुरुपत्नी तारा का हरण किया था। ३. गया के पास का एक तीर्थ। ४. पुराणानुसार कूर्म विभाग का एक प्रदेश।
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धर्मार्थ  : वि० [धर्म-अर्थ, ब० स०] १. धार्मिक कार्यों के लिए अलग किया या निकाला हुआ (धन)। २. (कार्य) जो धर्म, परोपकार, पुण्य आदि की दृष्टि से किया जाए। क्रि० वि० केवल धर्म, अर्थात परोपकार या पुण्य के उद्देश्य या विचार से। जैसे—वे हर महीने १॰., धर्माथ देते हैं। पुं० धार्मिक दृष्टि से किया हुआ दान।
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धर्मार्थी (र्थिन्)  : पुं० [धर्म-अर्थिन, ष० त०] वह जो धर्म और उसके फल की इच्छा या कामना रखता हो।
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धर्मावतार  : पुं० [पुं० धर्म-अवतार ष० त०] १. वह जो इतना बड़ा धर्मात्मा हो कि धर्म का साक्षात् अवतार जान पड़े। परम धर्मात्मा। २. धर्म और अधर्म का निर्णय करनेवाला। न्यायाधीश। ३. युधिष्ठिर।
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धर्मावस्थायी (यिन्)  : पुं० [सं० धर्म-अव√स्था (ठहरना)+ णिनि] धर्माधिकारी।
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धर्मासन  : पुं० [धर्म-आसन, च० त०] न्यायाधीश का आसन।
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धर्मास्तिकाय  : पुं० [धर्म-अस्तिकाय, ष० त०] जैन शास्त्रानुसार छः द्रव्यों में से एक जो अरूपी है और जीव तथा पुद्गल की गति का आधार या सहायक माना गया है।
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धर्मिणी  : स्त्री० [सं० धर्म+इनि+ङीप्]१. पत्नी। २. रेणुका। वि० सं० ‘धर्मी’ का स्त्री०।
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धर्मिष्ठ  : वि० [सं० धर्म-इष्ठन] १. धर्म पर आरूढ़ या स्थित रहने वाला। २. पुण्यात्मा।
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धर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० धर्म+इनि] [स्त्री० धर्मिणी] १. किसी विशिष्ट धर्म-गुण आदि से युक्त। जैसे—ताप-गर्मी, द्रव-धर्मी। २. धर्म की आज्ञाएँ और सिद्धान्त माननेवाला। ३. किसी विशिष्ट धर्म या मत का अनुयायी। जैसे—सनातन-धर्मी। पुं० १. वह जो किसी विशिष्ट धर्म, गुण या तत्व का आधार हो। २. धर्मात्मा व्यक्ति। ३. विष्णु। स्त्री० धर्म का भाव। जैसे—हठ-धर्मी।
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धर्मीपुत्र  : पुं० [सं०] १. नायक का कोई पात्र या अभिनय कर्ता। २. नट।
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धर्मेन्द्र  : पुं० [धर्म-इन्द्र, स० त०] १. यमराज। २. युधिष्ठिर।
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धर्मेयु  : पुं० [सं०] पुरुवंशी राजा रौद्राश्व का एक पुत्र। (महाभारत)
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धर्मेश, धर्मेश्वर  : पुं० [धर्म-ईश ष० त०, धर्म-ईश्वर ष० त०] यमराज।
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धर्मोत्तर  : वि० [धर्म-उत्तर ब० स०] जो धर्म-अधर्म का बहुत ध्यान रखता हो। अति धार्मिक।
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धर्मोन्माद  : पुं० [धर्म-उन्माद, तृ० त०] १. वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का उन्माद या पागलपन, जिसमें मनुष्य दिन-रात धर्म-सम्बन्धी कार्यों या विचारों में मग्न रहता है। २. मनुष्य की वह मानसिक अवस्था जिसमें वह धर्म के नाम पर अंधा होकर भले-बुरे का विचार छोड़ देता है। (थियोमेनिया)
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धर्मोपदेश  : पुं० [धर्म-उपदेश ष० त०] १. धर्म-संबंधी तत्त्वों, शिक्षाओं, सिद्धान्तों आदि से संबंध रखने वाला वह उपदेश जो दूसरों को धर्मनिष्ठ बनाने के लिए दिया जाए। २. धर्मशास्त्र।
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धर्मोपदेशक  : पुं० [धर्म-उपदेशक, ष० त०] लोगों को धर्म संबंधी उपदेश देने वाला व्यक्ति।
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धर्मोपाध्याय  : पुं० [धर्म-उपाध्याय, ष० त०] पुरोहित।
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धर्म्य  : वि० [सं० धर्म+यत्] १. धर्म-संबंधी। २. धर्म-संगत। न्यायपूर्ण।
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धर्म्य-विवाह  : पुं० [कर्म० स०]=धर्म-विवाह।
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